बड़ा सा, कुछ घन सा
जामुन का वृक्ष था, झंझाड़ सा
दिन भी थे, कुछ लम्बे से
अकेले से गर्मियों की छुट्टियों के
बस ऐसे ही रविवार की दोपहरी को,
मैं अपने ख्वाबों को इठलाता, पाव हिलाता,
बैठा हुआ, कमरा नंबर ९४ के बहार
आँगन गरम है, पाव के नीचे की मिटटी नम है
सुगन्ध भी है, कुछ भीनी सी
सामने का आँगन है, बैंगनी जामुन सा
कोयल भी है और अन्य अज्ञात पक्षी भी
उन्हें अपना एहसास कराता, मैं अपनी सिटी की धुन से
लिख रहा मैं अब यह
क्यूंकि वो एहसास था कुछ अपना सा
सौरभ!
जामुन का वृक्ष था, झंझाड़ सा
दिन भी थे, कुछ लम्बे से
अकेले से गर्मियों की छुट्टियों के
बस ऐसे ही रविवार की दोपहरी को,
मैं अपने ख्वाबों को इठलाता, पाव हिलाता,
बैठा हुआ, कमरा नंबर ९४ के बहार
आँगन गरम है, पाव के नीचे की मिटटी नम है
सुगन्ध भी है, कुछ भीनी सी
सामने का आँगन है, बैंगनी जामुन सा
कोयल भी है और अन्य अज्ञात पक्षी भी
उन्हें अपना एहसास कराता, मैं अपनी सिटी की धुन से
लिख रहा मैं अब यह
क्यूंकि वो एहसास था कुछ अपना सा
सौरभ!
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