Friday, January 3, 2014

kal sa nahi

आँख खुली तो, काले आसमां में वो दिखा
खिड़की के शीशे से, मेरा ही अक्स मुझे ताक रहा था
साँसे गहरी थी, वक्त कुछ डेढ़ सा था
खिड़की के झरोखे से, आसमां से, कोई और भी मुझे देख रहा था
मैंने भी कुछ पल के लिए निहार लिया उसे

सोचा था मैंने, बस अब नहीं, कभी नहीं
पर, आज ना जाने क्यूँ , कल सा नहीं
शीशे में जब ताका, मैंने मुझको, एहसास हुआ
दाढ़ी कुछ आ गयी है, बाल तो वैसे ही है, बिखरे हुए
क्या कुछ बदला भी है या सिर्फ मेरा ख्याल है

ना जाने क्यूँ, घड़ी पर एक नज़र पड़ी
तारीख बदल गयी थी, वख्त अब डेढ़ था
आज न जाने क्यूँ, कल सा नहीं
मैं भी,  तुम भी
आज न जाने क्यूँ कल सा नहीं

वख्त कही फरेब तो नहीं
मैं कही मदहोश तो नहीं
एक मुस्कान सी आहट हुई मुझे
कही मेरा ही अक्स, मेरा मज़ाक तो नहीं
आज ना जाने क्यूँ कल सा नहीं

घंटी कुछ चार बार बजी
साँसे मेरी थम सी गयी
उन चार घंटियों के दौरान
धड़कन जैसे रुक सी गयी
वहाँ सुबह के छः बजे थे, जब यहाँ डेढ़ हुआ था

उसकी गहरी साँसो से मेरी
साँसे जैसे फिर जी उठी
एक दबी हुई सी आवाज़
उसने कुछ कहा और फिर सो गयी
मैंने लाइन काटी नहीं

उसकी साँसे फिर गहरी हो गयी
फिर कुछ धीमी फिर शिथिल हो गयी
गर कुछ खूबसूरत है तो उसकी मद्धम सी साँसे
अगले दो पल कुछ नहीं बदला
आखिर वख्त फरेब ही तो है

उसके करवट में अटकी हुई उसकी साँसे
उसी कि मुस्कान कि जैसे, शरारत कर गयी
उसकी धड़कन में उसी के होठो की ख्वाइश है
खिड़की से एक बार फिर उसे देखा, आसमां में
कोना बदल लिया था उसने, आज न जाने क्यूँ कल सा नहीं।


उन खूबसूरत पलों के लिए ,
सौरभ।

9 comments:

Sourabh Goyal said...

Whistles podu!!!

Saurabh said...

Thank you thank you!

Srikanth said...

Sahi dost...andar ka talent uchal uchal ke bahar araha..nice one..keep up..

Anshul said...

Very well composed, Saurabh..!!! Much appreciated. :-) Keep writing...

Saurabh said...

Thanks Srikanth and Anshul!

Jitendra Nayak said...

आपने अहसास को तुमने काफी अच्छे तरीके से कविता के रूप में पिरोया है ।
काफी बढ़िया मित्र

Saurabh said...

Thanks Jiten!

Unknown said...

Too good..........meaning full.

Keep writing :)

Saurabh said...

Thanks Vinay!